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क्या होती है ऑटोइम्यून बीमारी? नोबेल विजेता विज्ञानियों की खोज से जिसका लगाया जा सकेगा पता

Chikheang 2025-10-7 06:35:24 views 1249

  नोबेल विजेता विज्ञानियों की खोज से आटोइम्यून बीमारियों की वजह का पता लगेगा। इमेज सोर्स- @NobelPrize





जागरण न्यूज नेटवर्क, नई दिल्ली। साल 2025 के चिकित्सा नोबेल से सम्मानित विज्ञानी मैरी ब्रंको, फ्रेड राम्सडेल और जापान के शिमोन साकागुची की खोज से तीन मुख्य बातों का पता चलता है। पहला, प्रतिरक्षा प्रणाली क्यों विफल होती है, जिसके चलते आटोइम्यून बीमारियों का खतरा बढ़ता है। दूसरा, जब ये प्रतिरक्षा प्रणाली विफल होती है तब क्या होता है और तीसरा, ये प्रणाली नियंत्रित कैसे होती है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

प्रतिरक्षा प्रणाली को शरीर की सेना कहा जाता है। ये वायरस, बैक्टीरिया और संक्रमण से रोज लड़ती है। इसके विशेष सैनिकों को टी-सेल कहा जाता है। कुछ टी-सेल घुसपैठियों पर सीधे हमला कर देती हैं, जबकि अन्य सहयोगी के तौर पर मौजूद रहती हैं। कभी-कभी सेना से भयानक गलती होती है और वह अपनी ही कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला कर बैठती है।



कुछ ऐसा ही होता है डायबिटीज, मल्टिपल स्क्लेरोसिस या अर्थराइटिस जैसे आटोइम्यून रोगों के मामले में, जब प्रतिरक्षा प्रणाली दोस्त औऱ दुश्मन के बीच अंतर नहीं कर पाती। ऐसे पता लगा खास रेगुलेटरी टी-सेल्स का लंबे समय तक विज्ञानी ये मानते रहे कि ऐसे टी-सेल्स को शरीर का सेंट्रल टालरेंस यानी थाइमस स्वत: नष्ट कर देता है। लेकिन यदि ऐसा होता तो आटोइम्यून बीमारियां होने ही नहीं पातीं। विज्ञानी ये जवाब नहीं दे सके कि ऐसा क्यों होता है।


चूहे की प्रतिरक्षा तंत्र पर की रिसर्च

इस सवाल का जवाब खोजा जापानी विज्ञानी शिमोन साकागुची ने। उन्होंने 1980 में चूहों के प्रतिरक्षा अंग थाइमस को हटा दिया। इससे चूहों की प्रतिरक्षा प्रणाली गड़बड़ा गई और वे उनके अंगों पर ही हमला करने लगीं। इससे साकागुची ने पता लगाया कि शरीर में कुछ खास टी-सेल होती हैं, जो अन्य टी-सेल्स को नियंत्रित करती हैं। यानी ये प्रतिरक्षा सेना के भीतर मौजूद पुलिस बल की तरह होती हैं। 1995 में उन्होंने टी-सेल्स के नए वर्ग की पहचान की। इनको उन्होंने रेगुलेटरी टी-सेल कहा। इनके बगैर प्रतिरक्षा प्रणाली बेकाबू हो सकती है।


आटोइम्यून बीमारी के लिए जिम्मेदार है जीन म्यूटेश

नजापान में साकागुची के अलावा अमेरिका में मैरी ब्रंको और फ्रेड रैम्सडेल भी इसी लाइन पर काम कर रहे थे। 2001 में विज्ञानियों ने एक्स क्रोमोजोम में एक जीन, फाक्सपी3, में बदलाव (म्यूटेशन) का पता लगाया। इस वजह से प्रतिरक्षा प्रणाली अपने ही अंगों की दुश्मन बन जाती है। जब इस जीन को ठीक कर दिया गया, तो चूहे फिर से स्वस्थ हो गए। विज्ञानियों ने एक लड़के में पनपी विलक्षण बीमारी आइपेक्स में भी इसी तरह के जीन म्यूटेशन का पता लगाया। 2003 में साकागुची ने पाया कि स्वस्थ फाक्सपी3 जीन की वजह से ही शरीर की विशेष प्रतिरक्षा प्रणाली यानी रेगुलेटरी टी-सेल बनते हैं, जो इम्यून सिस्टम को बेकाबू नहीं होने देते।


नई खोज से कैसे मिलेगा फायदा?

इस खोज से विज्ञानी खास रेगुलेटरी टी-सेल्स का इस्तेमाल विभिन्न रोगों के उपचार में कर सकेंगे। इनसे टाइप वन डायबिटीज या ल्यूपस जैसी बीमारियों को ठीक किया जा सकता है। अंग प्रत्यारोपण के दौरान कभी-कभी शरीर नए अंग को खारिज कर देता है। ऐसे में इन रेगुलेटरी टी-सेल्स से हालात संभाले जा सकते हैं। इसके अलावा कुछ कैंसर मामलों में ट्यूमर इन रेगुलेटरी टी-सेल्स में छिप जाते हैं ताकि इन पर हमला न हो सके। ऐसे में इन कैंसर सेल्स को ब्लाक किया जा सकेगा, जिससे प्रतिरक्षा प्रणाली इनको नष्ट करके कैंसर से निजात दिला सकेगी।
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