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Bihar Politics: किंगमेकर ईबीसी पर राहुल-तेजस्वी ने चली सोची समझी चाल, 2.7 करोड़ वोटरों पर सीधी नजर

cy520520 2025-9-25 04:13:01 views 1244

  किंगमेकर बन चुके ईबीसी पर राजनीति के दांव लुभावने





राज्य ब्यूरो, पटना। नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने 2023 में जाति आधारित गणना कराकर ईबीसी के लिए अतिरिक्त आठ प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने उसे असंवैधानिक ठहराया। विपक्ष यही से दांव चलने लगा। उसका आरोप है कि अगर सरकार आरक्षण में वृद्धि को संविधान की नौवीं अनुसूची में सम्मिलित कर देती, तो उसे न्यायालय में कोई चुनौती नहीं दे पाता। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

इस क्षोभ के साथ राहुल गांधी और तेजस्वी यादव यह वादा कर रहे कि महागठबंधन के सत्ता में आने पर वे ईबीसी के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करेंगे और उसे संवैधानिक कवच पहनाएंगे। हालांकि, इसके लिए केंद्र में भी अपनी सरकार चाहिए, जबकि लोकसभा चुनाव 2029 के मध्य में संभावित है।



दरअसल, इस वादे के साथ राहुल का फोकस 90 प्रतिशत जनसंख्या (ओबीसी/ ईबीसी/ अनुसूचित जाति/ मुसलमान) पर है, जो नरेन्द्र मोदी के 90 प्रतिशत (मुसलमानों को छोड़कर) के विरुद्ध दिखाने का प्रयास है। उनकी यह रणनीति एक नया जनाधार तैयार कर कांग्रेस को राजद की छाया से बाहर निकालने में भी सहायक हो सकती है।

इंटरनेट मीडिया पर उनके समर्थक पोस्ट इसे ईबीसी एकता बता रहे, लेकिन एनडीए के दृष्टिकोण से यह नकारात्मक राजनीति है। इस दांव-पेच में अगर ईबीसी वोट बंटे, तो महागठबंधन को मजबूती मिलेगी। हालांकि, एनडीए की पकड़ इस प्रयास में बड़ी चुनौती है। जिस ईबीसी को कर्पूरी ठाकुर समाज की मुख्य धारा में लाने की परिकल्पना किए, उसे नीतीश कुमार ने काफी हद तक साकार किया।



पिछले दो दशक के दौरान इस वर्ग को आत्मबल के साथ आर्थिक बल भी मिला है। राजनीतिक पहुंच-पैठ बढ़ी है। अब इस समाज की संप्रभु वर्ग से प्रतिस्पर्द्धा है और बराबर की हैसियत की इच्छा। राजनीति के लिए यही से अवसर निकल आता है। ललक और क्षोभ के संयोग से परिवर्तन की संभावना बनती है। इसीलिए महागठबंधन ईबीसी पर दोहरे डोरे डाल रहा।



लंबे समय की सरकार से जब जनता में थोड़ा-बहुत असंतोष होता है, तो विपक्ष को ऐसी ही होशियारी की सूझती है। महागठबंधन के लिए तो यह रणनीति इसलिए भी आवश्यक है, क्योंकि अब तक के जनाधार पर वह अधिकतम सीटों तक पहुंच चुकी है। यह उसके रणनीतिकारों का मानना है। राजद-कांग्रेस की अंदरूनी सर्वे रिपोर्ट भी बता रही कि जनाधार का विस्तार किए बगैर बहुमत के बराबर सीटों का जुगाड़ संभव नहीं।



कांग्रेस का परंपरागत जनाधार (सवर्ण-अनुसूचित जाति-मुसलमान) पहले ही उसके हाथ से खिसक चुका है। उसका एक अंश (मुसलमान) तो अभी राजद से भी गलबहियां है। अनुसूचित जाति के मतदाता परिस्थिति, क्षेत्र और उप-जातियों के हिसाब से कई हिस्सों में बंट जाते हैं, जबकि सवर्ण बहुलता में एनडीए के साथ हो लिए हैं। ऐसे में कांग्रेस नया जनाधार बनाने के लिए तत्पर है।

उसके लिए बड़ी जनसंख्या वाला ईबीसी इसलिए भी उपयुक्त है, क्योंंकि वहां अभी बेचारगी दूसरे वर्गों की तुलना में अधिक है। इसलिए राहुल और तेजस्वी अति-पिछड़ा न्याय की पैरोकारी कर रहे, लेकिन नीतीश कुमार का पुराना प्रभाव और एनडीए की कल्याणकारी योजनाएं उसे तगड़ी चुनौती दे रही है।





बेरोजगारी, पलायन और आरक्षण की मांगों पर ईबीसी के एक हिस्से में असंतोष है। बरहाल महागठबंधन का प्रयास उस असंतोष को प्रबल कर जन-समर्थन जुटाने का है। इसीलिए राहुल न्याय का कार्ड चल रहे। सामाजिक न्याय, रोजगार और वोट सुरक्षा पर केंद्रित उनकी रणनीति इस कार्ड का अंश है। इस वर्ष राहुल बिहार में पांच बार आ चुके हैं।patna-city--election,Bihar Assembly Election 2025,Patna City news,BJP Bihar,Bihar elections 2025 candidates,Bihar political news,Dilip Jaiswal BJP,Samrat Choudhary,Bihar BJP core committee,Bihar election strategy,Patna political developments,Bihar news

उनके हर प्रवास में ईबीसी, ओबीसी, अनुसूचित जाति और अल्पसंख्यक फोकस में रहे। \“संविधान बचाओ सम्मेलन\“ और \“पलायन रोको-नौकरी दो\“ पदयात्रा में भागीदारी कर उन्हें इन्हीं वर्गों को कांग्रेस से जोड़ने का प्रयास किया। इस दौरान कांग्रेस ने जिला कमेटियों का पुनर्गठन किया, जिसमें ईबीसी-ओबीसी और अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व बढ़ाया।



चुनावी गणित: 2005 और 2010 के विधानसभा चुनावों में एनडीए को ईबीसी का भारी समर्थन मिला, जिससे राजद हाशिए पर चला गया। 2010 में जदयू ने 115 सीटें जीतीं, जिनमें ईबीसी के प्रभाव वाली सीटों की संख्या अधिक रही।

2015 में नीतीश महागठबंधन में आए तो लालू के माय (मुस्लिम-यादव) समीकरण से उनकी ईबीसी नीतियों ने मिलकर 178 सीटें दिलाईं। 2020 में एनडीए ने 125 सीटें जीतीं, लेकिन ईबीसी वोट कुछ बंटा। राजद ने तेजस्वी यादव के नेतृत्व में रोजगार और पलायन जैसे मुद्दों पर ईबीसी युवाओं को लुभाया, जिससे महागठबंधन को 110 सीटें मिलीं।



ईबीसी का एक हिस्सा (तैलिक-साहू समाज आदि) राजद की ओर गया, लेकिन नीतीश का प्रभाव दमदार रहा। ऐसे में निषाद समाज को साधने के उद्देश्य से महागठबंधन ने विकासशील इन्सान पार्टी को विशेष महत्व दिया है। ईबीसी में इसकी अच्छी हिस्सेदारी है।

जनसांख्यिकी शक्ति: बिहार की जनसंख्या में अति-पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) लगभग 36 प्रतिशत है, जबकि पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) 27 प्रतिशत। ये दोनों मिलाकर 63 प्रतिशत वोट बैंक बनाते हैं, जो चुनाव जीतने का सहज फार्मूला है। ईबीसी में 113 जातियां सम्मिलित हैं, जिनमें अधिसंख्य आर्थिक-सामाजिक रूप से वंचित हैं। इनका वोट किसी भी गठबंधन के लिए जीत का रास्ता तय कर सकता है। सामाजिक रूप से इन्हें कपूरी ठाकुर ने नई पहचान दी। राजनीतिक रूप से लालू प्रसाद ने साथ जोड़ा, जबकि नीतीश कुमार ने इन तक सुशासन का लाभ पहुंचाया। अब राहुल इस बड़े वोट बैंक को महागठबंधन की ओर मोड़ने के लिए आक्रामक रणनीति अपना रहे हैं।



जनमत का दम-खम: ईबीसी में नोनिया, मल्लाह, तेली, केवट, बिंद, नाई, माली जैसी छोटी-छोटी जातियां सम्मिलित हैं। मिथिलांचल, सीमांचल, कोसी, तिरहुत और मगध आदि परिक्षेत्रों में इनका प्रभाव अधिक है। कुल 243 विधानसभा सीटों में से लगभग 120 पर इस वर्ग के मतदाता 20 से 40 प्रतिशत के बीच हैं। यह संख्या जीत-हार के लिए निर्णायक है। इनकी एकजुटता या बिखराव चुनाव परिणाम की दिशा बदल सकता है। विधानसभा के पिछले चुनाव में ईबीसी एनडीए के साथ एकजुट रहा। इस बार लोकसभा चुनाव में इस पर कुछ दांव महागठबंधन का भी चला। इसीलिए राहुल-तेजस्वी उत्साहित हैं।



प्रारंभिक पहल कपूरी ठाकुर की: 1970 के आस-पास तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने मुंगेरी लाल आयोग की रिपोर्ट के हवाले से ईबीसी को पहचान दी और 12 प्रतिशत आरक्षण लागू किया। इससे ईबीसी में राजनीतिक चेतना जगी। उससे पहले राजनीतिक रूप से यह वर्ग मूक बना हुआ था।

प्रभावी पहल नीतीश कुमार की: 2005 से नीतीश कुमार ने ईबीसी को संगठित कर वोट बैंक बनाया। उनके लिए विशेष योजनाएं शुरू कीं, जैसे कि अति-पिछड़ा आयोग और विकास परियोजनाएं। महत्वपूर्ण पद दिए। आरक्षण बढ़ाकर 20 प्रतिशत किया। हालांकि, वह प्रभावी नहीं हो सका।



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