cy520520 • 2025-11-15 04:43:17 • views 533
कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के बीच संवाद का भी घोर अभाव है (फाइल फोटो)
संजय मिश्र, जागरण, नई दिल्ली। वोट चोरी के खिलाफ लड़ाई में उलझी कांग्रेस का सियासी मोमेंटम पिछले डेढ़ साल में लुढ़कता जा रहा है। बिहार चुनाव में करारी शिकस्त इसकी ताजा कड़ी है। इन नतीजों से साफ है कि चुनावी नैरेटिव से लेकर जमीनी संगठन ही नहीं रणनीतिक कौशल में भाजपा के चुनावी मैक्रो मैनेजमेंट का मुकाबला करने से कांग्रेस अभी कोसों दूर है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
विधानसभा चुनावों में लगातार हार के लिए पार्टी का कमजोर संगठन व लचर प्रबंधन तो जिम्मेदार है ही, कार्यकर्ताओं और नेतृत्व के बीच संवाद का भी घोर अभाव है। पांच सितारा होटलों में आईपैड पर चुनावी बागडोर संभालने वाली अनुभवहीन नई पीढ़ी के कांग्रेस नेताओं का हकीकत से कटाव और चुनावी नैरेटिव की लड़ाई में पिछड़ना पार्टी की राजनीतिक दुर्दशा की बहुत बड़ी वजह है।
कारगर साबित नहीं हो रही कांग्रेस की शैली
बिहार में भले ही सत्ता हाथ न आई हो, मगर राजनीति के अखाड़े में सत्ता का भावी शिखर हासिल करना है तो कांग्रेस को बदलना होगा। कांग्रेस को बदलाव की इस राह पर ले जाने के लिए पार्टी के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी को पुनर्विचार करना होगा क्योंकि सत्ता और संगठन की दोहरी ताकत के साथ भाजपा की चुनावी प्रबंधन की जबरदस्त क्षमता का मुकाबला करने में यह शैली कारगर साबित नहीं हो रही है।
भले ही बिहार चुनाव में विपक्षी महागठबंधन की हार के लिए अकेले कांग्रेस दोषी नहीं और राजद नेतृत्व की जिम्मेदारी ज्यादा है। लेकिन बिहार जैसे राज्य में जहां नए विकल्प और नेतृत्व के लिए अपार संभावनाएं थी वहां भी कांग्रेस उभरने का रास्ता निकालना तो दूर दहाई का आंकड़ा भी नहीं छू सकी। इसकी सबसे बड़ी वजह कांग्रेस के पास संगठन का न होना और चंद निष्ठावान कांग्रेसियों की अनदेखी है।
सीट बंटवारे का नहीं सुलझ पाए विवाद
यह इसी से जाहिर होता है कि बिहार चुनाव से ठीक पहले राहुल गांधी की वोटर अधिकार यात्रा में लगभग हर जिले में हजारों की संख्या में भीड़ ने उमड़कर कांग्रेस के लिए बेहतर संभावनाओं के द्वार खुले होने का संदेश दिया मगर कमजोर संगठन के कारण पार्टी इसका चुनाव में फायदा नहीं उठा पायी। हालांकि इसके लिए पार्टी की चुनावी रणनीति का संचालन करने वाले नेता-रणनीतिकार खास तौर पर जिम्मेदार हैं जो राजद के साथ सीट बंटवारे का मसला नामांकन तक नहीं सुलझा पाए और करीब 10 सीटों पर कांग्रेस दोस्ताना मुकाबले में उतरी।
जाहिर तौर पर विपक्षी गठबंधन का चुनावी नैरेटिव यहीं से बिगड़ा जिसका खामियाजा कांग्रेस को भी भुगतना पड़ा। वैसे जमीनी वास्तविकता को दरकिनार कर करीब डेढ दर्जन सीटों पर प्रभावी नेताओं के अपने पसंदीदा को टिकट दिलाने से लेकर पटना के ताज और मौर्या होटल में बैठकर चुनावी रणनीति का आईपैड पर संचालन करने वाले पार्टी के ये रणनीतिकार ही इसके लिए संपूर्ण रूप से दोषी नहीं ठहराए जा सकते।
दरअसल कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का जमीनी नेताओं-कार्यकर्ताओं से सीधा संवाद बेहद सीमित है। पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं की शिकायत रही है कि राहुल गांधी जिन रणनीतिकारों की टीम पर भरोसा करते हैं वे उनकी बात उन तक पहुंचने ही नहीं देते।
जमीनी हकीकत से कटे नेता
जमीनी कार्यकर्ता वास्तव में पार्टी और लोगों के बीच का नेटवर्क होता है जो आज कांग्रेस के पास नहीं है। वहीं पार्टी में वरिष्ठ और अनुभवी नेता अब हाशिए पर हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रहे अहमद पटेल की बेटी पार्टी नेता मुमताज अहमद ने बिहार नतीजों के बाद एक्स पर कहा कि हर मुश्किल में साथ रहने वाले अनगिनत वफादार जमीनी कार्यकर्ता कब तक सफलता का इंतजार करेंगे। जबकि पार्टी कुछ ऐसे लोगों के हाथों में है जो जमीनी हकीकत से पूरी तरह कटे हुए हैं और बार-बार इस पार्टी की दुर्गति और पराजय के लिए जिम्मेदार हैं।
निशाने पर अब स्पष्ट रूप से वह प्रभावी मंडली है जिन पर नेतृत्व निर्भर है। बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता किशोर कुमार झा ने नतीजों पर हताशा व्यक्त करते हुए कहा बाहरी लोगों को प्रत्याशी बनाने के कारण कार्यकर्ताओं में भारी आक्रोश से पार्टी को नुकसान हुआ। कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर फिर स्थापित करने के लिए रणनीति में बदलाव की वकालत करते हुए झा कहते हैं कि टिकट बंटवारे में गड़बड़ी कर चुनाव अभियान को भोथरा करने वालों की जिम्मेदारी तय कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना चाहिए। वैसे बिहार में पार्टी की इस दुर्दशा में राज्य के कांग्रेस प्रभारी टेक्नोक्रेट कृष्णा अल्लावरू की प्रमुख भूमिका होने की पार्टी में धारणा चुनाव के दौरान ही बन गई थी।
बड़े दांव जो पड़े उलटे
कांग्रेस के चुनावी नैरेटिव व मैक्रो प्रबंधन का आलम यह रहा कि रोजगार से लेकर विकास तक के मुद्दे राहुल गांधी ने उठाए मगर महिलाओं को खाते में 10 हजार देने के भाजपा के दांव की काट नहीं ढूंढ़ पाए।
इसी तरह ओबीसी-ईबीसी और दलित वर्ग के अधिकारों को लेकर राहुल ने इतनी जोर-शोर से आवाज उठाई कि बिहार की अगड़ी जातियां कांग्रेस से दूर हो गईं।
जबकि मंडलधारा की राजनीति में भरोसा रखने वाले ओबीसी-ईबीसी परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ बीते तीन दशक से अधिक समय से नहीं हैं और वे क्षेत्रीय पार्टियों पर भरोसा करते हैं।
पार्टी का सही नैरेटिव जनता तक नहीं पहुंच पाने के लिए पार्टी के पुराने नेताओं के एक वर्ग का साफ कहना है कि राहुल गांधी लेफ्ट टू सेंटर के विचार को लेकर आगे बढ़ रहे जबकि दशकों तक कांग्रेस ने मध्यमार्ग की राजनीतिक चिंतन धारा पर चलते हुए लोगों का विश्वास हासिल किया था।
ऐसे में पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को अब इस पर गहराई से आत्मचिंतन करना होगा कि मंडलवाद और वामपंथ की ओर उन्मुख चिंतन से उसका कितना राजनीतिक भला हो रहा है। |
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