दूसरों को जिताते रहे, पर थिंक टैंक ही बने रहे आजीवन
दीनानाथ साहनी, पटना। चुनावी मौसम में बिहार की राजनीति में उन दिग्गजों की चर्चा लाजिमी है जो दूसरों को चुनाव जिताने के लिए खूब तारीफ बटोरते रहे। अपनों के बीच थिंक टैंक कहलाते रहे, किंतु ऐसे दिग्गज खुद विधानसभा या संसद में नहीं पहुंच पाए। अगर विधान परिषद या राज्यसभा में मनोनयन वाले पद नहीं होते तो ऐसे दिग्गजों का राजनीतिक सफर अधूरा रह जाता। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
हालांकि, पार्टियों ने अपने इन थिंक टैंकों के प्रति पूरी वफादारी निभाई और सुविधा के हिसाब से उनको राज्यसभा या विधान परिषद में सेट भी किया। कुछ तो राज्यपाल बने और कुछ केंद्र में मंत्री भी। ऐसे थिंक टैंकों में सबसे बड़े उदाहरण सीताराम केसरी रहे। वे प्रत्यक्ष निर्वाचन वाला एक ही चुनाव जीते, मगर अपने जीवनकाल में भी उन्हें याद नहीं होगा कि उन्होंने कितनों को क्या-क्या बना दिया।
कैलाशपति मिश्र से लेकर मुंगेरी लाल तक चुनाव हारे। 1977 में कैलाशपति मिश्र ने बिक्रमगंज से विधानसभा चुनाव जरूर जीता, लेकिन इसके पहले 1971 में पटना संसदीय क्षेत्र से वे चुनाव हार गए थे।
राजनीति में यह कटू सच है कि संगठन-पार्टी चलाना, टिकट बांटना, सांसद मंत्री बनना एक बात है और खुद चुनाव जीतना पूरी तरह अलहदा है। नजीर के तौर पर सबसे पहले सीताराम केसरी को ही लीजिए। वर्षों तक कांग्रेस का हिसाब-किताब रखने वाले सीताराम केसरी के बारे में यह प्रचलित धारणा रही कि वे प्रत्यक्ष निर्वाचन वाला एक ही चुनाव जीते।
1967 में वे कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के रूप में कटिहार लोकसभा क्षेत्र से जीते। वे 1971 में ज्ञानेश्वर प्रसाद यादव से चुनाव हार गए। यह कटिहार का चुनाव था। इसके बाद वे कभी चुनाव नहीं लड़े। जुलाई 1971 से अप्रैल 2000 तक उन्हें कांग्रेस ने पांच बार राज्यसभा के सदस्य बना कर भेजा।
इस परंपरा को ढोने वालों की कमी नहीं है। कैलाशपति मिश्र से लेकर मुंगेरी लाल तक संसदीय चुनाव हारे। 1977 में कैलाशपति मिश्र ने विक्रमगंज विधानसभा चुनाव जीता, लेकिन इसके पहले 1971 में पटना संसदीय क्षेत्र से वे चुनाव हार गए थे। केबी सहाय, दारोगा प्रसाद राय, राधानंदन झा, नागेन्द्र झा, ताराकांत झा, वीजी गोपाल जैसे दिग्गज सांसद बनने की अभिलाषा पूरी नहीं कर पाए।
हां, विधान परिषद एवं विधानसभा में जरूर पहुंचे। मगर इन दिग्गजों ने अनेक नेताओं-कार्यकर्ताओं को सांसद, विधायक और मंत्री आदि बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। कभी लालू प्रसाद के लंगोटिया यार रहे डा. रंजन प्रसाद यादव दो बार राज्यसभा भेजे गए, जबकि लालू प्रसाद के साथ बैठक कर वे सांसद-विधायक और मंत्री... बनाते रहे पर खुद प्रत्यक्ष चुनाव से अलग रहे। फिर पाला बदलकर वे जदयू में आए तो एकबार संसदीय चुनाव में जीते लेकिन वे दोबारा जीत नहीं पाए।
इसी तरह जनरल से सांसद बनने की एसके सिन्हा की कोशिश भी नाकामयाब रही। बाद में उन्हें राज्यपाल बनाया गया।समता पार्टी के संस्थापकों में शामिल रहे थिंक टैंक पीके सिन्हा ताउम्र चुनाव नहीं लड़े। उन्हें एकबार विधान परिषद के सदस्य बनने का मौका अवश्य मिला।
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