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बिजली के लिए बेशर्मी : एक रुपये एकड़ में अडानी ...

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  • ठ्ठ  कुमार कृष्णन  
'पीरपैंती अडानी पावर प्रोजेक्ट' के मुआवजे में तीन तरह की अनियमितताएं हैं- एक, एक ही मौजा, खाता, खसरा की जमीन के लिए अलग-अलग दर पर मुआवजा दिया गया है। दूसरे, जिन किसानों ने जमीन खरीदी थी, लेकिन कागज नहीं बना पाए थे, उन्हें मुआवजा नहीं मिल रहा। मामला कोर्ट में लंबित है और तीसरे, कई लोगों को कोई भी मुआवजा नहीं मिला है।  
भागलपुर ज़िले के पीरपैंती क्षेत्र की 1,050 एकड़ भूमि को 'अडानी पावर' को 33 वर्षों के लिए मात्र एक रुपये प्रति एकड़ वार्षिक किराए पर देने का निर्णय बिहार में एक बड़ा राजनीतिक सवाल बन चुका है। कांग्रेस के साथ-साथ 'महागठबंधन' की सहयोगी पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं। कांग्रेस ने इस सवाल पर पटना में मार्च तक किया। गत 15 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पीरपैंती में 2400 मेगावाट क्षमता वाली 'अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल थर्मल-पावर परियोजना' का वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए शिलान्यास किया था। पूर्णिया में आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए पीएम ने कहा था कि लगभग 29,000 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाली यह परियोजना न सिर्फ बिहार, बल्कि पूरे पूर्वी भारत की सबसे बड़ी कोयला आधारित बिजली परियोजना होगी।  




इसी तरह चालीस साल पहले 23 मई 1984 को 'कहलगांव एनटीपीसी' की बुनियाद भी रखी गई थी। शुरुआत में स्थानीय लोगों ने विकास, रोजगार और बेहतर जीवन-स्तर का सपना देखा था, लेकिन आज यह सपना धुंधला हो गया है। प्रदूषण, रोजगार की कमी और बुनियादी सुविधाओं के अभाव ने ग्रामीणों की उम्मीदें तोड़ दी हैं। अब हालात इतने खराब हैं कि लोग गांव छोड़ने को मजबूर हैं। ग्रामीणों का कहना है कि प्लांट से निकलने वाली राख की आंधी ने उनका जीना दुश्वार कर दिया है। घरों, फसलों और पानी पर राख जम जाती है, जिससे लोग गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे हैं। इस परियोजना में जमीन गंवाने वाले बहुत कम लोगों को रोजगार मिला है। पड़ोस में झारखंड के गोड्डा की भी ऐसी ही स्थिति है- वहां कोयला ऑस्ट्रेलिया से आता है और बिजली बांग्लादेश को जाती है।  




'पीरपैंती अडाणी पावर प्रोजेक्ट' का विरोध इन्हीं अनुभवों के कारण हो रहा है। भाकपा माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य का कहना है कि पीरपैंती में सरकार ने 'एनटीपीसी' के नाम पर किसानों से बेशकीमती जमीनें लीं और कहा कि यहां विकास होगा, लोगों को रोजगार मिलेगा, लेकिन अदाणी को जमीन दे दी, जो गलत है। अधिग्रहीत जमीन का मुआवजा सही ढंग से नहीं दिया गया है और भुगतान में भी विसंगति है। जमीन पर तकरीबन 10 लाख आम और अन्य फलों के पेड़ हैं, लेकिन उन पेड़ों का भी कोई मुआवजा नहीं दिया गया है। कमालपुर के मुखिया दीपक सिंह ने पुनर्वास की मांग की तो उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। अन्य कई लोगों को नजरबंद कर दिया गया।   




इस इलाके में 'एनटीपीसी' के नाम पर 2010 में 7 पंचायतों में जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू हुई थी। अचानक 15 वर्षों बाद यह जमीन अडाणी को दे दी गई। किसानों का कहना है कि जमीन उन्होंने बिहार सरकार को दी थी, अडाणी को नहीं। किसानों ने जिला प्रशासन से अपील की थी कि उपजाऊ जमीन की बजाय बगल की एकफसला जमीन का अधिग्रहण किया जाए, ताकि नुकसान कम हो। वे बाद में उच्च न्यायालय भी गए, लेकिन कोर्ट ने इस मामले में अजीब फैसला देते हुए कहा कि सरकार किसानों से पूछकर जमीन खरीदेगी क्या?  




नागरिक समाज के कई प्रतिनिधि बताते हैं कि पावर प्लांट का सब्जबाग दिखाकर सच्चाई छुपाई जा रही है। लोगों को पहले से रोजगार मिल रहा है- आम के बगीचे लाखों परिवारों को आजीविका प्रदान करते हैं। जिनके पास जमीन है और जिनके पास नहीं है- दोनों को यहां रोजगार मिलता है। इतनी बड़ी संख्या में लोगों को जमीन, रोजगार और आजीविका से बेदखल करके अडानी को लाभ पहुंचाना मोदी व नीतीश सरकार की साजिश है।  
'पीरपैंती अडानी पावर प्रोजेक्ट' के मुआवजे में तीन तरह की अनियमितताएं हैं- एक, एक ही मौजा, खाता, खसरा की जमीन के लिए अलग-अलग दर पर मुआवजा दिया गया है। दूसरे, जिन किसानों ने जमीन खरीदी थी, लेकिन कागज नहीं बना पाए थे, उन्हें मुआवजा नहीं मिल रहा। मामला कोर्ट में लंबित है और तीसरे, कई लोगों को कोई भी मुआवजा नहीं मिला है। मुआवजे में ताकतवार लोगों को फायदा पहुंचाने की कोशिश की गई है। कमालपुर टोले में विस्थापित होने वाले परिवारों का आरोप है कि इतने कम मुआवजे में वे कहां जमीन खरीदेंगे? सरकार उन्हें मकान बनाकर जमीन के बदले जमीन दे। यहां तकरीबन 64 घर विस्थापित होंगे, उन्हें लगातार नोटिस भेजे जा रहे हैं।  

'जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय' (एनएपीएम) ने अवैधानिक और अपारदर्शी फैसले की कड़ी निंदा करते हुए कहा है कि किसानों के अधिकारों, जनहित और पर्यावरणीय संतुलन को कॉरपोरेट मुनाफे के लिए अनदेखा किया जा रहा है। यह खुलेआम 'क्रोनी कैपिटलिज़्म' का उदाहरण है जो शासन में जनता के अविश्वास को और गहराता है। संगठन ने मांग की है कि 'पीरपैंती थर्मल पावर प्रोजेक्ट' को तुरंत रद्द किया जाए और प्रभावित किसानों को उनकी अधिग्रहित भूमि वापस दी जाए, साथ ही अब तक हुए नुक़सान की पूरी भरपाई और पुनर्वास सुनिश्चित किया जाए।  

इस परियोजना की लगभग 1,050 एकड़ भूमि 915 किसानों की है, जिसमें से कई हिस्से उपजाऊ हैं और आम, लीची और अन्य फसलों की खेती में इस्तेमाल होते हैं। इस भूमि को 'बंजर' घोषित करके अधिग्रहण किया गया है। कई किसानों को दस साल पहले तय की गई पुरानी दरों पर भुगतान किया गया है। एक बार का मुआवजा जीवनभर की आजीविका और भूमि से जुड़े सांस्कृतिक-सामाजिक संबंधों की भरपाई नहीं कर सकता। यह उस संरचनात्मक असमानता को दिखाता है, जिसमें किसानों को पूंजीवाद के लाभोन्मुख 'विकास' में बलि का बकरा माना जाता है।  

भागलपुर भारत और दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में से है। जनवरी 2024 में इसे भारत का दूसरा और विश्व का 31वां सबसे प्रदूषित शहर दर्ज किया गया। पहले से ही प्रदूषित इस क्षेत्र में कोयले का बढ़ता उपयोग वायु और जल गुणवत्ता को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाएगा, श्वसन संबंधी रोगों को बढ़ाएगा और लाखों लोगों, विशेष रूप से सबसे संवेदनशील वर्ग के जीवन को प्रभावित करेगा। इस आपदा में और वृद्धि होगी,  क्योंकि 10 लाख पेड़ों की कटाई की योजना है, जिसका गंगा-बेसिन के पारिस्थितिकी तंत्र पर अपरिवर्तनीय प्रभाव पड़ेगा। ऐसी परियोजनाएं सीधे नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में डालती हैं और उन 'नदी संरक्षण मिशनों' की भावना का उल्लंघन करती हैं, जिनकी पैरवी सरकार करती है।  

'पीरपैंती परियोजना' भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं के विपरीत है, जो 'पेरिस समझौते,' उसके राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान और 2070 तक 'नेट ज़ीरो' लक्ष्य के तहत की गई हैं। भारत सरकार और बिहार सरकार दोनों ने नवीकरणीय ऊर्जा संक्रमण का समर्थन करने की बात कही है, फिर भी उनके कार्य एक विरोधाभासी और खतरनाक रास्ता दिखाते हैं, जो जीवाश्म ईंधन  पर निर्भरता को और गहरा करता है। वैश्विक स्तर पर संदेश स्पष्ट है- नई कोयला बिजली परियोजनाएं उन जलवायु लक्ष्यों के साथ असंगत हैं, जिनसे हम विनाशकारी तापमान वृद्धि से बच सकते हैं। भारत घरेलू स्तर पर अपने कोयला ढांचे का विस्तार करते हुए वैश्विक जलवायु नेतृत्व का दावा नहीं कर सकता।  

जरूरी है कि पर्यावरणीय विनाश का राजनीतिक उपकरण के रूप में उपयोग बंद किया जाए— चुनावों से ठीक पहले इस परियोजना को जल्दबाज़ी और चुपचाप तरीके से थोपने के निर्णय को उजागर कर, विरोध किया जाना चाहिए। विकेंद्रीकृत, अक्षय-ऊर्जा समाधानों को प्राथमिकता दी जाए, जो सम्मानजनक रोजगार प्रदान करें, स्वास्थ्य की रक्षा करें और बिहार व अन्य क्षेत्रों के लिए दीर्घकालिक स्थिरता सुनिश्चित करें।   
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)






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