जिस तरह भारत-विभाजन की विभीषिका इतिहास में अमिट है और जिसे कोई भुला या झुठला नहीं सकता, उसी तरह इस हकीकत को भी कोई नकार या नजरअंदाज नहीं कर सकता कि मौजूदा सत्ताधीशों के वैचारिक पुरखों का भारत के स्वाधीनता संग्राम से कोई सरोकार नहीं था। यही नहीं, धर्म पर आधारित दो राष्ट्र-हिंदू और मुसलमान का विचार भी सबसे पहले उन्होंने ही पेश किया था।
जर्मन दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्शे का एक व्यंग्य वाक्य है- 'आदमी से उसका झूठ मत छीनो, क्योंकि वही उसके जीने का मूल आधार है। जैसे मछली पानी के बगैर जिंदा नहीं रह सकती, वैसे ही आदमी भी झूठ के बगैर नहीं जी सकता।'
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नीत्शे के इस कथन से परिचय हुआ हो या न हुआ हो, लेकिन वे इस कथन को सार्थक करते हैं। उनके बारे में अब यह पूर्णत: स्थापित हो चुका है कि वे हर मौके पर सिर्फ और सिर्फ झूठ ही बोलते हैं। उन्होंने सिर्फ अपने बचपन के बारे में, अपनी शिक्षा के बारे में और अपने वैवाहिक जीवन के बारे में ही गलत जानकारियां बयान नहीं कीं, बल्कि वे अपनी सरकार के काम-काज को लेकर भी हर मामले में पूरे आत्मविश्वास के साथ बेधड़क झूठ बोलने से कतई परहेज नहीं करते हैं।
पिछले सप्ताह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सौवें स्थापना दिवस पर अपने एक ब्लॉग के जरिये मोदी ने जाहिर कर दिया कि जैसे ब्रह्मांड का कोई ओर-छोर नहीं है, वैसे ही उनके झूठ बोलने की भी कोई सीमा नहीं है। उन्होंने अपने ब्लॉग में भारत के स्वाधीनता संग्राम में आरएसएस की भूमिका को लेकर ऐसी-ऐसी बातें लिखीं, जो कि आज तक आरएसएस के किसी सरसंघचालक ने भी कहने का साहस नहीं किया। यह स्थापित तथ्य है कि आजादी के संघर्ष में संघ की रंचमात्र भी भूमिका नहीं थी। मगर मोदी ने बाकायदा लिखा, 'डॉ. हेडगेवार समेत कई स्वयंसेवकों ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया और उन्हें जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा। कितने ही स्वाधीनता सेनानियों को संघ ने संरक्षण दिया और उनके साथ कं धे से कंधा मिला कर काम किया।'
यह सही है कि आरएसएस के संस्थापक और पहले सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार आजादी की लड़ाई के दौरान दो बार जेल गए थे लेकिन वे संघ के मुखिया के रूप में नहीं बल्कि कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में गए थे। हेडगेवार की आधिकारिक जीवनी (संघ-वृक्ष के बीज: डॉ .केशव बलिराम हेडगेवार) में लिखा है कि उन्हें पहली बार एक साल की जेल आरएसएस के गठन से पहले 1920-21 में खिलाफत आंदोलन के समर्थन में भड़काऊ भाषण देने के आरोप में हुई थी। यह जीवनी मराठी में चंद्रशेखर परमानंद भिशीकर ने लिखी है।
हेडगेवार की दूसरी जेल यात्रा 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान हुई लेकिन उसकी भी कहानी बेहद दिलचस्प है। उनकी जीवनी के मुताबिक हेडगेवार ने सब जगह सूचना भिजवाई थी कि 'संघ इस सत्याग्रह में भाग नहीं लेगा, किन्तु जिन्हें व्यक्तिगत रूप से इसमें भाग लेना हो, उन्हें मनाही नहीं है।' इसका मतलब है कि संघ में जिम्मेदारी वहन करने वाला कार्यकर्ता सत्याग्रह में भाग नहीं ले सकता था। जीवनी में लिखा है कि डॉक्टर साहब खुद गांधीजी के डांडी नमक सत्याग्रह में निजी तौर पर शामिल हुए लेकिन सरसंघचालक का पद छोड़कर। हेडगेवार की यह जीवनी इसके पीछे के गुप्त उद्देश्य का खुलासा करती है कि, 'ऐसा विश्वास भी डॉ. साहब के मन में था कि वहां जो स्वातंत्र्य प्रेमी, त्यागी एवं प्रतिष्ठित मंडली साथ में रहेगी, उनसे चर्चा कर उन्हें संघ के काम से जोड़ा जा सकेगा।' जाहिर है कि हेडगेवार देशप्रेम की वजह से नहीं, बल्कि संघ में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को शामिल करने के मकसद से नमक सत्याग्रह में शामिल हुए थे।
दरअसल जिस तरह भारत-विभाजन की विभीषिका इतिहास में अमिट है और जिसे कोई भुला या झुठला नहीं सकता, उसी तरह इस हकीकत को भी कोई नकार या नजरअंदाज नहीं कर सकता कि मौजूदा सत्ताधीशों के वैचारिक पुरखों का भारत के स्वाधीनता संग्राम से कोई सरोकार नहीं था। यही नहीं, धर्म पर आधारित दो राष्ट्र-हिंदू और मुसलमान का विचार भी सबसे पहले उन्होंने ही पेश किया था, जिसे बाद में मुस्लिम लीग ने भी अपनाया और उसी के आधार पर उसने पाकिस्तान हासिल किया।
भारत के मौजूदा सत्ताधीशों और उनके राजनीतिक संगठन यानी भाजपा की गर्भनाल संघ और हिंदू महासभा से जुड़ी हुई है। इन दोनों ही संगठनों ने स्वाधीनता संग्राम से न सिर्फ खुद को अलग रखा था बल्कि खुलकर उसका विरोध भी किया था। यही नहीं, 1942 में शुरू हुए 'भारत छोड़ो आंदोलन' के रूप में जब स्वाधीनता संग्राम अपने तीव्रतम और निर्णायक दौर में था, उस दौरान तो उस आंदोलन का विरोध करते हुए संघ और हिंदू महासभा के नेता पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत की तरफ़दारी कर रहे थे।
वैसे स्वाधीनता आंदोलन से अपनी दूरी और मुसलमानों के प्रति अपने नफरत भरे अभियान को संघ ने कभी छुपाया भी नहीं। हेडगेवार की आधिकारिक जीवनी में स्वीकार भी किया गया है- 'संघ की स्थापना के बाद डॉक्टर साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के बारे में ही बोला करते थे। सरकार पर टीका-टिप्पणी नहीं के बराबर रहा करती थी।'
महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश के सभी समुदायों की एकताबद्ध लड़ाई की कांग्रेस की अपील को ठुकराते हुए हेडगेवार ने कहा था- 'हिंदू संस्कृति हिंदुस्थान की जिंदगी की सांस है। इसलिए स्पष्ट है कि अगर हिंदुस्थान की रक्षा करनी है तो हमें सबसे पहले हिंदू संस्कृति का पोषण करना होगा।'
1940 में हेडगेवार की मृत्यु के बाद आरएसएस के प्रमुख भाष्यकार और दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरुजी ने भी स्वाधीनता आंदोलन के प्रति अपनी नफ़रत को नहीं छुपाया। वे अंग्रेज शासकों के विरुद्ध किसी भी आंदोलन अथवा कार्यक्रम को कितना नापसन्द करते थे, इसका अंदाज़ा उनके इन शब्दों से लगाया जा सकता है- 'नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डॉक्टर जी (हेडगेवार) के पास गए थे। इस 'शिष्टमंडल' ने डॉक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से देश को स्वतंत्रता मिल जाएगी और इसलिए संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टर जी से कहा कि वह जेल जाने के लिए तैयार है, तो डॉक्टर जी ने कहा- 'ज़रूर जाओ लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा?' उस सज्जन ने बताया, 'दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं, आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी मैंने पर्याप्त व्यवस्था कर रखी है।' इस पर डॉक्टर जी ने कहा- 'आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।' घर जाने के बाद वे सज्जन न तो जेल गए और न ही संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।'(श्री गुरुजी समग्र, खंड 4 पृष्ठ 39-40)
गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्यौरे से साफ जाहिर होता है कि आरएसएस का मकसद स्वाधीनता संग्राम के प्रति आम लोगों को निराश और उदासीन करना था। ख़ास तौर से उन देशभक्तों को, जो अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे। वैसे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति आरएसएस का हिकारत भरा रवैया गोलवलकर के इस शर्मनाक कथन से भी जाना जा सकता है- 'सन्1942 में भी अनेक लोगों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयंसेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ के बारे में कहा गया कि यह अकर्मण्य लोगों का संगठन है, इनकी बातों का कु छ अर्थ नहीं। ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, संघ के कई स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।' (श्री गुरुजी समग्र, खंड 4 पृष्ठ 40)
गोलवलकर का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आरएसएस का 'रोज़मर्रा का काम' ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोज़मर्रा का काम क्या था? इसे समझना ज़रा भी मुश्किल नहीं है। यह काम था मुस्लिम लीग के समानांतर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को अधिक चौड़ा व गहरा करना। उनकी इस 'महान' सेवा से खुश होकर अंग्रेज़ शासकों ने उन्हें अपनी कृपा से नवाज़ा भी। गौरतलब है कि ब्रिटिश शासन में आरएसएस और मुस्लिम लीग पर कभी भी प्रतिबंध नहीं लगा। दोनों संगठनों को खुल कर खेलने की छूट मिली हुई थी।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
(शेष कल के अंक में)

Deshbandhu
rssPM ModipoliticsCongress
Next Story |