एम्स द्वारा तैयार किया सस्ता सर्विकल कैंसर जांच किट। फोटो सौजन्य: एम्स
जागरण संवाददाता, नई दिल्ली। देश में सर्वाइकल कैंसर महिलाओं में दूसरा सबसे आम कैंसर है, जिससे हर साल सवा लाख महिलाएं प्रभावित होती हैं और 70 हजार से अधिक की मौत भी हो जाती है। जागरूकता की कमी और देर से पहचान इसका सबसे बड़ा कारण है। जिसके चलते न केवल उपचार का खर्च बढ़ रहा है, बल्कि मृत्युदर भी अधिक है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
एम्स के शोधार्थियों ने अर्ली डिटेक्शन के लिए मेक इन इंडिया के तहत बेहद सस्ती किट तैयार की है, जिसकी सटीकता शत-प्रतिशत है। महज 100 रुपये की लागत वाली यह किट इस्तेमाल करने में भी एकदम आसान है। पेटेंट के लिए आवेदन के बाद अब कुछ कंपनियों की ओर से इसके परिणामों की सटीकता परखी जा रही है।
कार्पोरेट करार की प्रक्रिया पूरी होने के साथ ही वर्ष 2026 के अंत तक इसके बाजार में उपलब्ध होने की संभावना है।
प्राइवेट अस्पतालों में जहां सर्वाइकल जांच का खर्च लगभग छह हजार हजार रुपये है, वहीं एम्स जैसे संस्थान में भी इसकी लागत लगभग दो हजार रुपये के आसपास है। सर्वाइकल कैंसर की जांच के लिए आमतौर पर एम्स जैसे सरकारी अस्पतालों में पैप स्मीयर या एचपीवी (डीएनए) टेस्ट किया जाता है। विशेषज्ञों के मुताबिक पैप स्मीयर सस्ती जांच है, इसलिए इसका इस्तेमाल भी ज्यादा है।
हालांकि इसकी सटीकता 70 प्रतिशत तक ही है। एचपीवी डीएनए टेस्ट में 85 प्रतिशत तक सटीक परिणाम मिलते हैं। कैंसर की आशंका होने पर बायोप्सी के लिए कोल्कोस्कोपी की जाती है, जिसकी सटीकता 90 प्रतिशत से अधिक है। वहीं एम्स के इस किट से वर्ष 2021 से अब तक 400 सैंपलों का परीक्षण किया गया, जिसमें 100 प्रतिशत सटीकता पाई गई है।
किट को विकसित करने वाली टीम का नेतृत्व इलेक्ट्रान एंड माइक्रोस्कोप फैसिलिटी (एनाटामी विभाग) के डा. सुभाष चंद्र यादव ने किया है। उनके साथ स्त्री रोग विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष डा. नीरजा भाटला, शोधकर्ता सृष्टि रमन, ज्योति मीना, शिखा चौधरी और प्रणय तंवर शामिल हैं।
इस तरह काम करती है जांच किट
यह नैनोटेक्नोलाजी पर आधारित है, जो हाई-रिस्क ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचबीवी) के कारण होने वाले सर्विकल कैंसर की तुरंत पहचान करती है। इस किट में दो तरह के साल्यूशन प्रयोग किए जाते हैं। पैप स्मीयर में इस्तेमाल होने वाला सैंपल दो भाग में लेते हैं।
दोनों सैंपलों में एक साल्यूशन की दो से तीन बूंद डालकर कुछ समय के लिए छोड़ देते हैं। फिर इसमें दूसरे साल्यूशन की कुछ बूंदें डालते हैं। सैंपल के पास मैग्नेट लगाने से पूरा साल्यूशन क्लीन हो जाता है। इसे साफ करके दोबारा बफर डालकर 15 मिनट के लिए छोड़ देते हैं।
फिर इसे यूवी लाइट के ऊपर रखते हैं। सैंपल में लालिमा दिखाई देने पर रिपोर्ट पाजीटिव मानी जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में दो घंटे से भी कम समय लगता है। यह इतना आसान है कि आशा कार्यकर्ता या नर्सें भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में आराम से इसका इस्तेमाल कर सकेंगी।
कुछ कंपनियों के साथ करार की प्रक्रिया चल रही है। वो भी अपने तरीकों से परिणामों की जांच कर रहे हैं, प्रामाणिकता की प्रकिया चल रही है। एम्स के नियमों और मानकों के मुताबिक जल्द ही करार होने की संभावना है। सरकारी अस्पतालों में यह किट मुफ्त होगी, वहीं प्राइवेट संस्थानों को मामूली शुल्क में यह ओपन मार्केट से मिल सकेगा। और इसकी जांच प्रक्रिया भी बहुत आसान है। -
डा. नीरजा भाटला, पूर्व विभागाध्यक्ष, स्त्री रोग विभाग, एम्स
सर्वाइकल जांच के लिए प्रचलित विधियां:-
- पैप स्मीयर: इसमें गर्भाशय ग्रीवा की कोशिकाओं को माइक्रोस्कोप के नीचे जांचने के लिए एकत्र किया जाता है। यह कैंसर बनने से पहले ही असामान्य या पूर्व-कैंसर कोशिकाओं का पता लगा सकता है।
- एचपीवी टेस्ट: यह परीक्षण गर्भाशय ग्रीवा के नमूने में एचपीवी वायरस की उपस्थिति की जांच करता है, जो सर्वाइकल कैंसर का मुख्य कारण है। कई देशों में, पैप स्मीयर के बजाय एचपीवी टेस्ट को प्राथमिक जांच माना जाता है।
- कोल्पोस्कोपी: यदि पैप स्मीयर या एचपीवी टेस्ट असामान्य है, तो इस प्रक्रिया के लिए सैंपल आगे बढ़ाया जाता है। चिकित्सक एक कोल्पोस्कोप नामक उपकरण का उपयोग करके गर्भाशय ग्रीवा को करीब से देखते हैं। असामान्य दिखने वाली कोशिकाओं का पता लगाने के लिए बयोप्सी की जाती है।
- वीआइए (विजुअल इंस्पेक्शन विथ एसिटिक एसिड): इसमें गर्भाशय ग्रीवा पर तीन से पांच प्रतिशत तक एसिटिक एसिड का घोल लगाया जाता है। यह घोल असामान्य कोशिका प्रोटीन के कारण होने वाले किसी भी एसिटोव्हाइट (सफेद) क्षेत्र को देखने में मदद करता है। यह तकनीक कम-संसाधन वाले दूर-दराज के क्षेत्रों में पैप स्मीयर का एक सस्ता और तेज विकल्प है। इसके परिणाम भी तुरंत मिल जाते हैं।
- विजुअल इंस्पेक्शन विथ लुगोल आयोडीन (विली): इसका उपयोग वीआइए के साथ होता है। इसमें गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर की जांच के लिए लुगोल के आयोडीन घोल का उपयोग किया जाता है। सामान्य गर्भाशय ग्रीवा के ऊतक आयोडीन के संपर्क में आने पर भूरे या काले हो जाते हैं, जबकि एचपीवी-संक्रमित या कैंसरग्रस्त ऊतक, जिनमें ग्लाइकोजन की कमी होती है, पीले या सरसों जैसे दिखते हैं। यह प्रक्रिया बायोप्सी के सटीक स्थान का पता लगाने में मदद करती है।
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