अवैज्ञानिक निर्माण से असंतुलित हो रही चमोली की नंदाकिनी घाटी, भविष्य में जनहानि व नुकसान की आशंका बढ़ सकती
/file/upload/2025/11/4314777390442699043.webpनंदानगर से एक किमी आगे ब्लाक मुख्यालय के नजदीक होने से संवेदनशील क्षेत्र में बसावट के बाद मानसून के दौरान हुआ नुकसान।
कमल किशोर पिमोली, जागरण श्रीनगर गढ़वाल: खूबसूरत बुग्याल, औषधीय वनस्पति और जलधाराओं से भरपूर चमोली जिले की नंदाकिनी घाटी अनियंत्रित निर्माण और बसागत के कारण संकटग्रस्त हो रही है। बीते चार दशक में हुए अवैज्ञानिक विकास ने इस घाटी के पर्यावरणीय संतुलन को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। विज्ञानी आशंकित हैं कि अगर समय रहते बसागत का निर्धारण भू-भौतिकीय और भू-वैज्ञानिक सर्वे के आधार पर नहीं हुआ तो भविष्य में जनहानि व नुकसान की आशंका और बढ़ सकती है। विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें
इस वर्ष वर्षाकाल के दौरान आपदा ने उत्तराखंड में भारी नुकसान पहुंचाया। सो, शासन-प्रशासन अब वैज्ञानिक तौर-तरीके से आपदा प्रबंधन के कार्य में जुटे हैं। इसी कड़ी में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) के सदस्य डा. दिनेश कुमार असवाल और भू-विज्ञानियों की टीम ने चमोली व रुद्रप्रयाग जिलों की अलकनंदा, मंदाकिनी व नंदाकिनी घाटियों में आपदाग्रस्त इलाकों का स्थलीय निरीक्षण किया।
पता चला कि नंदाकिनी घाटी में जाखणी गांव के पास राक ग्लेशियर (चट्टान के टुकड़े और बर्फ का मिश्रण) के ठीक नीचे भवन बनाए गए हैं। भू-विज्ञानी प्रो. महेंद्र प्रताप बिष्ट बताते हैं कि जाखणी गांव के आसपास नंदाकिनी नदी के दाहिने छोर पर स्थित गांव के पीछे बहते शिलाखंडों एवं उन पर जमी काई से प्रमाणित होता है कि राक ग्लेशियर का यह बहाव 10-15 साल से ज्यादा पुराना नहीं है।
बावजूद इसके नीचे भवनों का निर्माण जारी है, जो अत्यंत खतरनाक हो सकता है। कई जगह तेज वेग से बहने वाले नालों के पंखा क्षेत्र (एलुवियल फैन) के आसपास भी भवन निर्माण से धराली जैसी आपदाओं की पुनरावृत्ति हो सकती है।
विशेषज्ञों के अनुसार खेती के लिए सुरक्षित पारंपरिक सेरा क्षेत्र अब आवासीय उपयोग में लाए जा रहे हैं। इससे प्राकृतिक ढालों का संतुलन बिगड़ा है। यही अनियंत्रित बसागत और अवैज्ञानिक निर्माण आपदाओं का मूल कारण बन रहे हैं।
प्रो. बिष्ट ने बताया कि नंदानगर से आगे चुफलागाड व बांजबगड़ क्षेत्र में स्थिति सबसे अधिक दयनीय रही। इस वर्ष धराली के बाद सबसे अधिक जानमाल का नुकसान चुफलागाड क्षेत्र में ही हुआ। वर्ष 2018 में भी इसी प्रकार की घटना से कुछ लोगों को जान गंवानी पड़ी थी। बांजबगड़ तोक में भी भवनों का निर्माण और वर्षा के दौरान भारी मात्रा में आए मलबे से यहां कई भवन ध्वस्त हुए।
प्रो. बिष्ट कहते हैं कि जब वह वर्ष 1987 में पहली बार इस घाटी में अध्ययन को आए, तब गांव ऊंचाई पर बसे थे, लेकिन अब अधिकांश लोग नदी की तलहटी तक आ बसे हैं।
विशेषज्ञों के सुझाव
[*]भू-वैज्ञानिक सर्वेक्षण : भू-भौतिकीय और भू-वैज्ञानिक सर्वे के आधार पर हो बसागत का निर्धारण
[*]नदी सुरक्षा रेखा : नदियों के अधिकतम जलस्तर के नीचे प्रतिबंधित किए जाएं निर्माण
[*]ढाल मानचित्रण (स्लोप मैपिंग) : ढालों की स्थिरता और वहन क्षमता का हो वैज्ञानिक परीक्षण
[*]भवन निर्माण कोड : पर्वतीय क्षेत्रों के लिए अनिवार्य किए जाएं विशेष निर्माण कोड
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